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Thursday 22 July, 2010

डा. अनवर जमाल साहब की छोटी बेटी (अनम ) का लम्बी के बीमारी के चलते इंतक़ाल हो गया ,इन्ना लिल्लाहि व इन्ना इलैहि राजिऊन ।

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आज २२,जुलाई २०१०, सुबह ११ बजे के करीब हस्बे मामूल जब मैंने जमाल साहब से बात करने के लिए फ़ोन किया तो,फ़ोन किसी दूसरे के द्वारा रिसीव करने पर मुझे बताया गया कि हम जमाल साहब की बेटी को लेकर जा रहे हैं , तो मैंने पुछा कि क्या अनम को किसी डा. के  पास लेकर जा रहे हो? उसकी तबियत कैसी है? तो मुझे बताया गया कि अनम का इंतक़ाल हो गया है और हम लोग इस वक़्त कब्रिस्तान में हैं, आप एक घंटे बाद फोन करिएगा, सुन कर बहुत अफ़सोस हुआ, उसके बाद  दोपहर २.३० बजे डा.जमाल साहब से तफ़सील से बात हुई, तो उन्होंने बताया कि अनम ने रात १ बजे दूध पिया फिर ४ बजे भी दूध पिया तब तक वो हस्बे मामूल थी, सुबह सब लोग अपने काम में मसरूफ हो गए, ७.३ बजे जब उसको उठाने के लिए हाथ में लिया तो बच्ची ख़त्म हो चुकी थी, उन्होंने बताया कि उसके बदन कि ठंडक से लग रहा था कि को ख़त्म हुए २ घंटे से ज्यादा हो चुके हैं, इस दुःख कि घड़ी में हम सब उनके साथ हैं, अल्लाह उनको और उनके घर वालों को सब्र अता फरमाए, आमीन.......














‘हम‘ ज़रूर आज़मायेंगे तुमको ख़ौफ़ और भूख से और कुछ माल और जान के नुक्सान से और फलों की पैदावार के घाटे में भी , ऐसे मौक़े पर सब्र करने वाले को खुशख़बरी सुना दो। -अलबक़रह, 155

क्या तुमने यह समझ रखा है कि जन्नत में बस यूं ही चले जाओगे जबकि तुम पर अभी वह हालात नहीं आये जो तुमसे पहले लोगों पर आ चुके थे उन्हें सख्त तंगदस्ती का सामना पड़ा और बड़े बड़े नुक्सान और तकलीफ़ें उठानी पड़ीं और उन्हें खंगाल कर ऐसा हिला डाला गया कि वक्त के रसूल और उनके ईमान वाले साथी पुकार उठे कि अल्लाह की मदद कब आयेगी ? जान लो कि बेशक अल्लाह की मदद अब क़रीब है।      -अलबक़रह, 214

‘हम‘ ज़रूर आज़मायेंगे तुमको ख़ौफ़ और भूख से और कुछ माल और जान के नुक्सान से और फलों की पैदावार के घाटे में भी , ऐसे मौक़े पर सब्र करने वाले को खुशख़बरी सुना दो। -अलबक़रह, 155
                                अनुवाद : मौलाना अब्दुल करीम पारीख साहब रह.

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दुनिया की ज़िन्दगी में इनसान को मुख्तलिफ़ हालात पेश आते हैं। मोमिन जानता है कि यह ज़िन्दगी तरबियत और इम्तेहान का मरहला है। वह बेहतर अंजाम के लिये नेक रास्ते पर डटा रहता है। क़दम क़दम पर उसे मुश्किलों का सामना करना पड़ता है और वह सब्र के साथ नेकी के लिये, लोगों की भलाई के लिये त्याग करता है, अपना जान माल और वक्त खर्च करता है। किसी भी मुश्किल में न तो वह मालिक की तय की गई सीमा से बाहर निकलता है और न ही अपने मालिक से शिकवा ही करता है। वह अपने मालिक से अपनी बेहतरी के लिये दुआ और फ़रियाद ज़रूर करता है लेकिन वह किसी भी हालत के लिये मालिक से आग्रह नहीं करता कि यह काम ऐसे ही हो या इतने समय में ज़रूर हो। बन्दगी नाम है बिना शर्त पूरे समर्पण का। किस दुआ को कब और कैसे पूरा करना है, बन्दे से ज्यादा इसे मालिक बेहतर जानता है।
नेक बन्दों पर आने वाले मुश्किल हालात उनकी आज़माइश हैं , उनके विकास और निखार का सामान हैं जबकि ज़ालिम और पापी लोगों पर पड़ने वाली मुसीबतें ही नहीं बल्कि उन्हें मिलने वाली राहतें तक मालिक की यातना होती हैं। लोग मुसीबतों को तो यातना के रूप में जान लेते हैं लेकिन राहतों की शक्ल में भी सज़ा दी जा सकती है इसे हरेक नहीं जान सकता सिवाय ‘आरिफ़ बन्दों‘ के , जिन्हें तत्वदृष्टि प्राप्त है। इसी बोध के कारण ‘आरिफ़ मोमिन‘ मुसीबतों में भी विचलित नहीं होते, उनके दिलों को क़रार रहता है जबकि ज़ालिम पापियों के दिल राहतों में भी बेचैन और बेक़रार रहते हैं।
इससे बड़ी सज़ा किसी इनसान के लिये क्या हो सकती है कि वह अपने जन्म का मूल उद्देश्य पूरा करने से ही वंचित रह जाये ? और उससे उसका मालिक नाराज़ हो ?
और सबसे बड़ी कामयाबी यह है कि इनसान अपने जन्म का मक़सद पूरा कर ले और उससे उसका मालिक राज़ी हो जाये। यह कामयाबी सिर्फ़ मोमिन को ही नसीब होती है। जिसे न तो अपने मालिक पर यक़ीन है और न ही वह उसके बताये रास्ते पर क़दम आगे बढ़ाता है, उसे कामयाबी कैसे नसीब हो सकती है?
पहले के लोगों को भी इम्तेहान से गुज़रना पड़ा है। हर ज़माने में यह नियम लागू रहा है और आज भी है। पालनहार की मुहब्बत इस इम्तेहान को आसान बना देती है। और मुहब्बत तो चीज़ ही ऐसी है कि हरेक दर्द और तकलीफ़ का अहसास लज़्ज़त में बदल जाता है।
डा. अनवर जमाल से साभार