गीता के महावाक्यों में दो वाक्य हैं- ' मैं अजन्मा हूँ ।' ' मैं अविनाशी हूँ' बुद्धि का तर्क कहता है -ये महावाक्य उस कृष्ण के नहीं हैं जो देवकी के गर्भ और वासुदेव के बीज से पैदा हुए थे । जिनके धर्म को भाद्रपद के कृष्ण पक्ष की अष्टमी को हम श्रीकृष्ण जयंती के रूप में अत्यधिक श्रद्धा और आस्था के साथ मानते हैं । भगवान, जिसे हम सृष्टि का रचियता कहते हैं , जिसे हम परमपिता परमात्मा कहते है ,जिसे हम अजर-अमर, अजन्मा , अविनाशी ,सर्वज्ञ और सर्व्यापक कहते हैं, की कोई जयंती हो भी नहीं सकती क्योंकि वह जनम नहीं लेता है और न ही मरता है ।
श्रीमदभागवत में उल्लेख मिलता है की कृष्ण जन्म के समय देवकी ने चतुर्भुज विष्णु का साक्षात्कार किया था । इसी आधार पर लोगों ने उन्हें भगवान मान लिया पर हम यह क्यों भूल जाते हैं की विष्णु भी त्रिदेव ( ब्रह्मा,विष्णु,महेश ) में से एक देव हैं और ये त्रिदेव भी भगवान की रचना नहीं हैं , इसलिए ये भगवान नहीं सिर्फ देवता हैं । किसी देवता को भगवान नहीं कहा जा सकता , कहेंगे तो बहुत सरे भगवान हो जाएँगे और उनमे बड़े-छोटे के झगड़े खड़े हो जाएँगे ।
भगवान तो निराकार है, अशरीरी है , अव्यक्त मूर्त है और ज्योतिस्वरूप है । शाब्दिक अर्थ पर जाएँ तो जो ज्योतिस्वरूप है वह कृष्ण ( काला ) कैसे हो सकता है? कृष्ण तो जगत के अन्य मानवों की तरह ही मां-बाप के संयोग से जन्मे, पले,किशोर बने, युवा बने,वृद्ध हुए,राज किए,युद्ध किए,दुष्टों का संहार किए,जमकर राजनीती की और महाभारत कराया,उनका पूरा परिवार था । सगे सम्बन्धी थे । जाती-वंश-कुल-गोत्र थे । मामा-नाना,पत्नी-साले, बहनोई सब रिश्ते-नाते थे, सहपाठी थे , गुरु थे, मित्र थे,नौकर चाकर थे। वे भी अपने पूर्वजन्म के श्रेष्ठ कर्मों का फल भोगने के लिए धरती पर आए थे, भोग कर चले गए । संसारी मानव की भांति उनकी भी मृत्यु हुई,जैसे आपकी-सबकी होगी । वे भगवान नहीं थे क्योंकि भगवान सबका पिता है और उसका कोई पिता नहीं है । राम भी भगवान नहीं थे । इसलिए उनके नाम के साथ विशेषण लगा-' मर्यादा परुषोत्तम। ' पुरुषों में सबसे उत्तम ढंग से मर्यादाओं का, बन्धनों का और कर्तव्यों का पालन उन्होंने किया था । कृष्ण भी योगिराज कहलाए और योगविद्या के बल पर ही वे अपने समय के सब मानवों से श्रेष्ठ दर्जा पाए ।
योगीराज कृष्ण महापुरुष थे। उनका जीवन लोकहितकारी था। वे लोकरंजक भी थे और लोकनायक भी थे। ये दोनों गुण उनमें बाल्यावस्था में ही विकसित हो गए थे। यों तो सभी माताओं को अपना-अपना पुत्र प्रिय होता है लेकिन यशोदा का नंदन सबका प्रिय था। उसकी एक झलक पाने को सभी आयु व वर्ग के लोग उत्सुक रहते थे। सब उसके सांवले-सलोने रूप पर मोहित थे। मीरा हों या सूरदास, रहीम हों या चांदबीबी। मथुरा-गोकुल-वृंदावन यानी ब्रज के गोप-गोपियों के लिए तो वह महापुरुष नहीं थे। देवता भी नहीं थे बल्कि पूर्ण भगवान थे। कारण यह है कि श्रीकृष्ण का प्रभामंडल ही बड़ा अलौकिक लगता था। उनके अधरों की रहस्यमयी मुस्कान पर सब मोहित थे। उनके चमत्कारपूर्ण बल-विक्रम के आगे सब नतमस्तक थे। उनकी राजनीति और कूटनीति के सामने सब पस्त थे। कृष्ण में राम से दो कलाएं ज्यादा थी। राम चौदह कलाओं में निपुण थे, जबकि कृष्ण को सोलह कलाओं का अवतार माना जाता है। सच में कृष्ण ने समाज के छोटे से छोटे व्यक्ति का सम्मान बढ़ाया जो जिस भाव से सहायता की कामना लेकर कृष्ण के पास आया, उन्होंने उसी रूप में उसकी इच्छा पूरी की। अपने कार्यों से उन्होंने लोगों का इतना विश्वास जीत लिया कि आज भी लोग उन्हें "भगवान श्रीकृष्ण" के रूप में ही मानते और पूजते हैं क्योंकि आस्था और विश्वास के आगे बुद्धि का तर्क नहीं चल सकता। अगर चलता तो अबोध गोपिकाओं के सामने उद्धव जैसे ज्ञानी को निरुत्तर होकर शर्मिंदा न होना पड़ता।
कृष्ण पूर्णतया निर्विकारी हैं। तभी तो उनके अंगों के साथ भी लोग "कमल" शब्द जोड़ते हैं, जैसे-कमलनयन, कमलमुख, करकमल आदि। उनका स्वरूप चैतन्य है। उनके मंदिर में जाकर लोग "काम विकार" का संकल्प लेने का साहस नहीं कर सकते। वास्तव में बड़ा कष्ट होता है जब पौराणिक कथाकर उनके जीवन की कथा सुनाते हुए कई ऐसे प्रसंगों की चर्चा करते हैं जो तर्क बुद्धि के परे जाता है, जैसे उनकी 108 पटरानियां और सोलह हजार रानियां थीं। गणित लगाकर जोड़ते हैं तो लाखों की संख्या में उनके बेटे-पोतों की गिनती कराने में भी वे लजाते नहीं हैं।
नहाती हुई गोपियों के वस्त्र चुराने व मक्खन चोरी जैसी घटनाओं के साथ-साथ उनके राधा प्रेम को अश्लीलता के साथ श्रोताओं, दर्शकों व पाठकों के सामने परोसने में गुरेज नहीं करते। इन "क्षेपकों" का आध्यात्मिक अर्थ भी खोल कर लोगों को नहीं समझाते। लोगों को समझना चाहिए कि कृष्ण क्या थे। जो कृष्ण द्रोपदी का चीर बढ़ाकर उसे अपमानित होने से बचाता है, वह गोपियों का चीर हरण नहीं कर सकता। जो केवल एक ही संतान का पिता कहलाकर पूर्ण पुरुष बनने का सम्मान पाने का अधिकारी है, वह हजारों की संख्या में रानियां रखने का शौक नहीं पाल सकता है। सोलह हजार कन्याओं और स्त्रियों को दुराचारी राक्षस कंस की कैद से मुक्त करा कर उन्हें जीवनदान देने वाला उनका संरक्षक और उद्धारक तो हो सकता है, पर पति नहीं।
जब हम कृष्ण के सोलह कलाओं में संपन्न होने की बात करते हैं तो समझना चाहिए कि कला का अर्थ नाचना, गाना, बांसुरी बजाना और रास रचना नहीं है। कला का अर्थ है - स्तर, दर्जा, डिग्री। जैसे चांद अमावस्या की काली अंधेरी रात से लेकर पूर्णमासी तक अपना आकार बढ़ाता हुआ चलता है और लोग उसकी कलाओं के बढ़ते स्वरूप को देखकर आनंदित होते हैं। पूर्णमासी का चंद्र तो हर किसी को आह्लादित करता है। जैसे पूर्णमासी का चंद्रमा अपूर्णता से ऊपर उठकर पूर्ण प्रकाश के साथ प्रकाशमान होता है, ऐसे ही श्रीकृष्ण भी सम्पूर्ण महामानव के रूप में अपनी पवित्रता का अहसास कराते हैं ।
कृषण जन्माष्टमी के उत्सवों का भारत में ही नहीं बल्कि विदेशों में भी देखने को मिलता है ।भारत के अध्यात्म की भी वे ही पहचान बने हैं ।आओ, इसी दिव्य विभूति के जन्मोत्सव को हम निर्विकारी होकर मनाएं । और उनकी ज़िन्दगी से जुडी घटनाओं का स्पष्टीकरण देते हुए क्रष्णलीला की पावनता, विराटता, दिव्यता, और भव्यता को हर कदम पर संरक्षण दें । भारत के साथ-साथ यह पूरी मानव जाति के लिए शुभ होगा कि हम कृष्ण जन्माष्टमी को भगवन के जन्मदिन के रूप में नहीं बल्कि एक महापुरुष के जन्मदिन के रूप में मनाएं । वैसे भी हम भारतीय भगवन को भी जब तक मानव नहीं बना देते तब तक हम उसे अपना नहीं बनाते । आखिर क्या बात है कि भारतीय जनमानस में प्रधानता शिव, कृष्ण, और राम कि है वह एनी देवताओं को नसीब नहीं है । अलौकिक को लौकिक बनाकर ही हम आध्यात्मिक सुख पाते हैं । स्पष्ट है कि कृष्ण को इसका अपवाद नहीं बनाया जाना चाहिए ।
साभार- नई-दुनिया ( दैनिक हिंदी समाचार पत्र ) गुरुवार, 2 सितम्बर 2010
( प्रष्ठ 08 )
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श्री महेंद्र पाल जी का यह लेख बताता है कि अगर आदमी निष्पक्ष होकर विचार करे तो वह सत्य को पा सकता है । और सबसे बड़ा सत्य यह है कि परमेश्वर अजन्मा और अविनाशी है, इसी तरह अगर लेखक महोदय आवागमन पर भी विचार करते तो वह जान लेते कि आवागमन होता ही नहीं है। और न ही इसका ज़िक्र वेदों में मिलता है, जो कि धर्म का मूल है । आवागमन कि कल्पना दार्शनिकों का एक विचार मात्र है । इसे सबसे पहले 'क्ष्न्दोग्योप्निश्द' में पेश किया गया । आवागमन कि कल्पना स्वर्ग, नरक के सिद्धांत से टकराती है । आवागमन एक दार्शनिक कल्पना है । जबकि धर्म का सिद्धांत है कर्मानुसार स्वर्ग या नरक । आवागमन की कल्पना केवल भारतीय मूल के दार्शनिक मतों जैन, बौद्ध आदि में ही मिलती है । जबकि इन्सान का कर्मानुसार स्वर्ग, नरक भोगने का ज़िक्र संसार के सभी प्रमुख धर्म-मतों इस्लाम, ईसाई, यहूदी, पारसी व स्वयं वैदिक धर्म आदि-आदि में मिलता है ।
जो लोग जन्माष्टमी मना रहे हैं वे ज्ञान के अलोक में इन सत्य तथ्यों पर ज़रूर विचार करे ताकि वे वास्तव में सत्य को पा सकें जो की जीवन का मकसद है ।
13 comments:
महेंद्रपाल काम्बोज जी ने अच्छा लेख लिखा और उसे आपने ब्लागजगत मे प्रस्तुत करके महान कार्य किया है इसके लिए हमारी ओर से धन्यवाद
@एजाज़ुल हक़ साहब आवागमन की अवधारणा पर भी आपने अच्छा स्पष्टीकरण दिया है
Nice post
जो लोग जन्माष्टमी मना रहे हैं वे ज्ञान के अलोक में इन सत्य तथ्यों पर ज़रूर विचार करे ताकि वे वास्तव में सत्य को पा सकें जो की जीवन का मकसद है ।
आवागमन की अवधारणा पर भी आपने अच्छा स्पष्टीकरण
ejaaz bhaayi bhut klhub aapne thik trh se aalekh prstut kiya he mubark ho, akhtar khan akela kota rajsthan
nice post
nice post
A.K. Saifi
Hapur
सुन्दर विचारणीय प्रस्तुती ...
दुनिया मेरी बला जाने महंगी है या सस्ती है
मौत मिले तो मुफ़्त न लूं हस्ती की क्या हस्ती है
http://hindugranth.blogspot.com/2010/09/blog-post.html
भारत का शायद ही कोई ऐसा बुद्धिजीवी होगा जिसने डा. भीमराव अम्बेडकर की भांति गीता को एक ‘शरारतपूर्ण पुस्तक‘ कहा हो। सभी हिन्दू नेतागण-क्या समाज सुधारक और क्या राजनीतिज्ञ-गीता की प्रशंसा के पुल ही बांधते चले गये। विचारणीय बात तो यह है कि गीता के उपदेशों का अनुसरण करते हुये समाज कैसा निर्मित हुआ ? इस प्रश्न का उत्तर श्री विवेकानंद के यह शब्द देते हैं-‘‘एक देश जहां लाखों लोगों के पास खाने को कुछ नहीं है और जहां कुछ हजार पुण्य-व्यक्ति तथा ब्राह्मण गरीबों का खून चूसते है और उनके लिए कुछ भी नहीं करते। हिन्दोस्तान एक देश नहीं है जिन्दा नरक है। यह धर्म है या मौत का नाच।‘‘ -फ्ऱंट लाईन, दिनांक सितम्बर 18, 1993, पृष्ठ 11
यह अंश एल. आर. बाली,संपादक-भीम पत्रिका, की पुस्तक ‘हिन्दूइज़्म : धर्म या कलंक‘ से साभार उद्धृत है। मिलने का पता : ईएस-393 ए, आबादपुरा, जालंधर 144003
मोहतरम एजाज़ उल हक़ साहब
आदाब अर्ज़ !
जन्माष्टमी और ईद के मध्य आपसे रू ब रू हूं …
दोनों पर्वों की बधाइयां और शुभकामनाएं स्वीकार करें!
महेंद्र पाल काम्बोज जी ने अच्छी मेहनत से आलेख तैयार किया है , उन तक बधाई पहुंचे … !
सार रूप में उन्होंने विद्वतापूर्वक कहा है - " आस्था और विश्वास के आगे बुद्धि का तर्क नहीं चल सकता । "
यहां मैं उनसे शत प्रतिशत सहमत हूं ।
शुभाकांक्षी
- राजेन्द्र स्वर्णकार
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